यात्रा : वैशाली एक्सप्रेस

आज पड़ोस में कुछ ज़्यादा ही हलचल थी। पास के घर में रह रही ६ साल की गुनगुन आज बड़ी खुश दिख रही थी।

मैंने पुछा तो गुनगुन की माँ ने बताया की वो लोग गुनगुन के दादा दादी के पास गांव जा रहे है। पीछे से छोटी गुनगुन बोली “आंटी हम लोग ट्रैन से जा रहे है”। गुनगुन का ये पहला ट्रैन का सफर था शायद इसलिए भी उसकी चेहरे की उत्सुकता साफ़ दिख रही थी।

गुनगुन को उसके पहले ट्रैन के सफर की शुभकामना दे कर अब  मैं भी अपने रोजमर्रा के कामो में लग गयी। सोचते- सोचते मन में बचपन की यादों का पिटारा खुल सा गया था। पिछली बार छठी सातवीं में रहीं होंगी जब गांव गयी थी।उसके बाद कभी जाना नहीं हो पाया। और अब शादी के बाद घर ग्रहस्ती बाल बच्चो ससुराल में ऐसा उलझे की अब अपने गांव जाना तो जैसे एक सपना सा लगता है । और वो भी तब जब अपना मायका शहर में हो ।

गांव याद आए और ट्रैन का सफर याद ना आये तो यादें अधूरी सी रह जाएगी।

हर साल गर्मी की छुट्टियों में पापा हम सब का महीने भर पहले ही ट्रैन का टिकट बुक करा लिया करते थें। टिकट बुक होने के अगले दिन से ही हम भाई बहन दिन गिनने शुरू कर देते थे।

जैसे -जैसे जाने के दिन पास आते, मम्मी सूटकेस में सामान रखना शुरू कर देती और हम भाई बहन अपने खेल खिलोने ट्रम्प कार्ड, लूडो, होलिडे होम वर्क और पढाई करने की किताबे सूटकेस में रखने लगते ।

आप यकीन नहीं करेंगे सूटकेस में साथ गयीं वो किताबे जैसे जाती, ठीक वैसे ही वापस आ जाती। मजाल हमारी जो हम उन किताबो को खोल कर भी देखें। अब भला गांव में दादा दादी के पास किसका पढाई में मन लगता।

दिन गिनते- गिनते गांव जाने का दिन आ गया। नई दिल्ली से रात आठ बजे की वैशाली एक्सप्रेस अमूमन अपने समय से ही चलती थी । पर हम स्टेशन शाम को चार बजे ही पहुंच जाते थे, हमारे पापा को सफर में अफरातफरी पसंद नहीं थी।

उन दिनों सूटकेस आजकल के सूटकेस की तरह स्टाइलिश और एडवांस नहीं होते थे। आर्मी के कपडे का कवर चढ़ाये भारी भरखम सूटकेस पापा उठाते और छोटे मोटे बैग और खाना पानी हम भाई बहन।

थोड़ा दूर चल कर कुली किया जाता था। मैं कुली भैया के सर पर रखा सामान गिनते जाती और हैरान रह जाती की आखिर ये भैया इतना सामान उठा कैसे लेते है मुझसे तो ये सूटकेस हिला भी नहीं था।

प्लेटफार्म पहुंच कर अब ट्रैन का इंतज़ार ही रहता , तो माँ ज़मीन एक चादर बिछा देती थी और पापा यहाँ वहाँ घूम कर टिकट का स्टेटस और डब्बा नंबर चेक करते थे । वो तीन चार घंटे काटना इतने मुश्किल होते थे।

टीडी डिंग टीडी डिंग टीडी डिंग… यात्रीगण कृपया ध्यान दीजिये ! नई दिल्ली से बरौनी जाने वाली वैशाली एक्सप्रेस अपने नियमित समय से चल रही है और कुछ ही देर में प्लेटफॉर्म नंबर दो पर आने वाली है।

बस ये अनाउंसमेंट चेहरे पर ख़ुशी ले आती थी। कुछ ही देर में ट्रैन प्लेटफार्म पर होती थी।

पापा सामान लिए आगे आगे और हम भाई बहन और माँ,  पापा के पीछे पीछे। ट्रैन में अपनी सीट पर पहुंचते ही हम भाई बहन चौड़े होकर फ़ैल जाते और पापा सारा सामान नीचे ऊपर रखते और सबको चैन से बांधते।

अब शुरू होती खिड़की पर बैठने की हम भाई बहनो की लड़ाई।

अब चूँकि दीदी सबसे बड़ी थी तो उनको बड़े होने के नाते खिड़की की सीट बिना लडे ही मिल जाती, पर हम छोटे भाई बहन को अपने हक़ की लड़ाई लड़नी पड़ती और अंत में सबसे छोटा होने के नाते जीत मेरी ही होती ।

ओह्ह कितने प्यारे दिन थे वो !!!

ट्रैन शुरू होने से पहले चाय, पानी, कोल्डड्रिंक, फ्रूटी और चिप्स वालो का आना और हमारा मम्मी की ओर देखना और मम्मी का पलट के हमें घूर कर देखना और इशारो में ही कहना की घर का खाना भी रखा है।

रात होते ही हम भाई बहन उप्पर की सीट पर पहले ही पहुंच जाते और ट्रम्प कार्ड खिलने लगते। फिर माँ का अख़बार बिछा कर सबको खाना परोसना। वो पूरी, आलू की सब्जी खाना और हिलती ट्रैन में पानी पीना ।

नींद ना आने पर ऊपर की सीट से नीचे झांक झांक कर देखना। सोते समय हमेशा मेरे मन में एक ख्याल आता था की कही सोते सोते नीचे न गिर जाऊ। इसी सोच में  पता ही नहीं चलता कब आँख लग जाती।

सुबह चाय, चाय, चाय की आवाज से आँख खुलती तो पापा मम्मी को कुल्हड़ वाली चाय पीते देखती।

अब हमें ब्रश करने जाना होता और मुझे ट्रैन में ब्रश करना बिलकुल पसंद नहीं था पर क्या करती गरम गरम समोसे के लिए तो कुछ भी करते।

चाय, समोसा, प्लेटफार्म पर बन रही गरम गरम सब्जी पूरी का नाश्ता किसी फाइव स्टार के नाश्ते को भी  फेल कर दे।

११ बजते- बजते हमारी पैकिंग शुरू हो जाती। यहाँ पापा सारा सामान इकठ्ठा करते और वहाँ हम अपने चप्पल जूते का दूसरा जोड़ा ढूढ़ते।

ट्रैन का खूबसूरत सफर ख़त्म कर हम गोरखपुर की ज़मीं पर कदम रखते।

अभी गोरखपुर से गांव तक का तीन घंटे का और  सफर बाकि था तो पापा हमें स्टेशन के बाहर ढाबो पर कुछ खिला देते। वहाँ से पेट पूजा कर हम टैक्सी से अपना बचा हुआ सफर पूरा करते।

कच्ची सड़के, आम के बगीचों,  खेत खलियानो का सफर पूरा कर आखिर हम अपने गांव पहुंच ही जाते जहाँ हमारी दादी हमारा बेसब्री से इंतज़ार कर रही होती थी। और जिन्हे देखते ही हम बच्चे झट से उनके गले लग जाते थे।

दोस्तों, बचपन हमेशा से सभी के लिए बेशकीमती होता है, जिसकी यादें कभी ऑंखें नम तो कभी चेहरे पर ख़ुशी छोड़ जाती है। हमें भी अपने बच्चो को खुल कर उनका बचपन जीने की आज़ादी देनी चाहिए ताकि आज वे अपने कल के लिए बचपन की सुनहरी यादें संजो सकें।

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धन्यवाद !

 

Disclaimer: This blog was originally posted on Momspresso.com. This is a personal blog. Any views or opinions represented in this blog are personal and belong solely to the blog owner.

About The Author

Rama Dubey

I am a Communication Professional with more than 13 years of rich experience in Public relations, Media management, Marketing and Brand promotion.  Currently working as a Head- communication for an IT firm.

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