आज मेरी प्रेगनेंसी का नवां महीना पूरा होने को था, और अब किसी भी पल ख़ुशख़बरी मिल सकती थी।अगले दिन डॉक्टर से चेकअप करवाने पहुंचे तो मैंने बताया की एक दो दिन से मुझे बच्चे की मूवमेंट कुछ कम महसूस हो रही थी। जिस पर डॉक्टर ने मुझे रिस्क ना लेते हुए ऑपरेशन करवाने की सलाह दी।
अब चूँकि मुझे माँ बनने का सुख सात साल बाद मिला था तो मैं भी कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी। आज ऑपेरशन थिएटर के बाहर मेरे परिवार के सभी लोग बेसब्री से आने वाली ख़ुशी का इंतज़ार कर रहे थे।
डॉक्टर ने बाहर आ कर बताया की मुझे “बेटी” हुई है, ये सुन सभी लोग खुश तो हुए पर शायद वे सब बेटा होने की आस लगाए बैठे थे, तो एक पल के लिए निराश हुए। पर अगले ही पल मुझे बेटी होने पर सबने पुरे हॉस्पिटल में मिठाई बाटी। हॉस्पिटल से घर लौटने पर मेरी बेटी का धूमधाम से स्वागत हुआ और आज मेरे सास ससुर अपनी लाड़ली पोती को बहुत प्यार करते है और उसे अपने पलकों पर रखते हैं।
आज बिटिया चार साल की होने को है और अब वो लगभग सभी बातें समझने और बताने भी लगी है। ये उम्र ही कुछ अलग होती है इस उम्र में बच्चे अपना छोटा ही सही पर अपना अलग अस्तित्व ढूंढते हैं। अपनी पसंद के कपडे, पसंदीदा खाना, गुस्सा होना, प्यार जताना, और ना जाने क्या क्या।
आज भी याद है मुझे वो दिन जब हड़बड़ी में सोफे से टकरा कर मेरे पैर के अंगूठे में चोट लगी थी, मारे दर्द के मैं अपना अंगूठा पकड़ रोने लगी थी। मुझे रोता देख बिटिया दौड़ के मेरे पास आयी और मेरे आंसू पोछते हुए मुझे चुप कराने लगी।
“मम्मा चुप हो जाओ , हम इस पर बैंडऐड लगा देंगे तो ठीक हो जायेगा ” कहते कहते अपने नन्हे हाथों से मेरा सिर सहलाती। बिटिया से इतना प्यार पा कर वो दर्द कहा छू मंतर हो गया पता ही नहीं चला।
उस दिन मैंने पहली बार अपनी बिटिया को मेरा दर्द महसूस करते देखा और तब ख़ुशी से ज़्यादा मुझे हैरानी हुई थी।
उस पल मुझे एक अहसास हुआ की आखिर हम एक बेटी और बेटे में अंतर क्यों करते है। एक बेटी भी तो माँ बाप का दर्द समझती है और ये कहना गलत नहीं होगा की शायद एक बेटे से ज़्यादा ही बेहतर समझती है ।
हम क्यों भूल जाते है की आखिर “बेटे” को जन्म देने वाली भी तो किसी की एक बेटी ही होती है। फिर तो बेटी का दर्जा दुगना होना चाहिए।
नवरात्रों में नौ दुर्गा पूजा में हम घर घर बेटियां खोजने जाते है पर अगर अपने ही घर बेटी जनमे तो फिर मायूस क्यों हो जाते है।
क्यों ये समाज एक बेटा होने पर माँ को ‘सोने का तमगा’ और बेटी की माँ को सिर्फ दिलासा भर दे कर रह जाता है की “कोई बात नहीं, देखना दूसरा बेटा ही होगा” । और अगर कहीं किसी माँ को दो बेटियां हो जाये तो मानो जैसे उसकी नौ महीने की तपस्या और दर्द का कोई मोल ही नहीं रहता।
बेटा हुआ तो वंश आगे बढ़ाएगा, भले ही आपको खुद अपनी चार पीढ़ियों के नाम तक याद ना हो पर वंश आगे बढ़ाने की चिंता सबको होती है।
बेटा बुढ़ापे की लाठी बनेगा, भले ही आज हम खुद नुक्लेयर फॅमिली /(एकल) परिवार में रहते हो पर अपने बेटे से बुढ़ापे की लाठी बनने की आस हम जरूर लगाए रहते है।लोग कहते है, बेटी पराया धन है विदा होकर चली जाती है। लेकिन आजकल तो हमे “बेटा” भी विदा करना पड़ता है, संयुक्त परिवारों मे कमी और एकल परिवार का बढ़ता चलन इस बात का जीता जागता उदाहरण भी है।पुरानी पीढी से ऐसी बाते सुन कर उतनी हैरानी नही होती जितनी आज के इक्किस्वी सदी के पढ़े लिखे लोगो की छोटी सोच देख कर होती है।बेटा पाने की आस मे लोग आईवीएफ जिसमे बेटा होने की गॅरेंटी हो, तक करवाते है। और तो और आप और हम मे से ही कुछ पढ़ी लिखी औरते, “बेटे की माँ” होना एक फक्र की बात समझती है। अगर समाज को बदलने की बात करने वाले लोग खुद ही ऐसी छोटी सोच रखे तो एक बात तो तय है की हमारी बेटियों का भविष्य ऐसे समाज मे कतई फल फूल नही सकता ।क्या आपको अंदाज़ा है की बेटा बेटी मे यह फर्क ही दहेज प्रथा, घरेलू हिंसा और रेप जैसे जघन्य अपराधो की जड़ है।
खैर, सालो पुरानी सोच बदलना तो मुश्किल है पर हाँ अगर इंसान अपने बुढ़ापे में भी आत्मनिर्भर बन जाएं तो शायद हम बेटों को “बुढ़ापे की लाठी” नही सिर्फ एक बेटा ही रहने दें। और फिर वो दिन भी दूर नहीं होगा जब हम और आप “बेटा या बेटी” होने पर नहीं बल्कि माँ का एक “स्वस्थ्य बच्चा” होने पर खुशियां मनाएंगे।
आपको मेरी ये कहानी कैसी लगी मुझे कमेंट बॉक्स में लिख कर जरूर बताएं ।
धन्यवाद !
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I am a Communication Professional with more than 13 years of rich experience in Public relations, Media management, Marketing and Brand promotion. Currently working as a Head- communication for an IT firm.
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Rama Dubey
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