अगले जनम मोहे ” बिटिया ” ना कीजो !

पूर्णिमा का दिन था, चांद की रोशनी जैसे सारे गांव को रोशन कर रही थी। मां बताती है तभी हुआ था मेरा जन्म, वैसे तो घर में लड़की पैदा हुई थी पर चुकीं मैं पहली औलाद थी इसलिए लड़की होने पर भी सब खुश थे।

बाबा शहर में सरकारी नौकरी करते थे तो हमारा पूरा परिवार भी शहर में ही रहता था। हम तीन बहने थी। मै सबसे बड़ी “पूर्णिमा”। बचपन से ही मुझे पढ़ने लिखने का बड़ा शौक था और बाबा ने हमेशा मुझे पढ़ाई के लिए बढ़ावा भी दिया। उनका हौसला और मेरी मेहनत का ही नतीजा था कि आज इंटर की परीक्षा में मैं अव्वल अाई थी।

बाबा ने मुझे आगे पढ़ने को कहा पर बाबा की आमदनी हमारे घर खर्च के लिए काम पड़ जाती थी।कई बार मां बाबा को इस बात पर  परेशान भी देखा था। इसलिए मैंने सोचा की अब मैं बाबा का सहारा बनूंगी और नौकरी करूंगी। चूंकि मेरे पास कोई डिग्री नहीं थी इसलिए कोई अच्छी नौकरी नहीं मिल पा रही थी।

बाबा की सिफारिश से एक ऑफिस में ‘ऑफिस असिस्टेंट’ की नौकरी लग गई। महीने के कुल 3500 रुपए मिलते थे, पर बाबा का कुछ भार तो कम कर ही पाती थी।

बड़ी हंसी खुशी से कट रही थी हमारी ज़िन्दगी। मेरी दोनो छोटी बहने भी पढ़ने में अच्छी थी। और मां हम सब ही का बड़ा ध्यान रखती थी।

अक्सर रिश्तेदार लोग मां बाबा को ताना भी मार देते थे कि अरे ! तीन बेटियों ही है,बुढ़ापे का सहारा कौन बनेगा। बेटियां है..पराए घर तो जाना ही है। ये सब सुन कर मन बड़ा उदास हो जाता। पर मां बाबा ने कभी भी हम तीन बेटियों को किसी बेटे से कम प्यार नहीं किया।

उस दिन मैं ऑफिस से जल्दी घर लौट आई थी। तब मैंने मां को बाबा से कहते सुना,

“बिटिया अब बड़ी हो गई है, कब तक उसकी कमाई खाएंगे, कोई अच्छा रिश्ता ठूंठ कर अब उसके हाथ पीले कर देते हैं।”

“हां पूर्णिमा की मां, सही कह रही हो, कल ही पंडित जी से बात करके कुंडली दे आता हूं।

माँ बाबा की बात सुन कर मुझे नया घर बसाने से ज़्यादा अपना घर छोड़ने का दुःख था। मैं ससुराल चली जाउंगी तो बाबा पर फिर से घर की जिम्मेदारियां बढ़ जाएँगी।

खैर पंडित जी ने बाबा को दिल्ली से आया एक रिश्ता बताया।

माँ बाबा को रिश्ता काफी अच्छा लगा। माँ ने मुझे भी रिश्ते की लिए मना लिया।

लड़के का नाम विक्रम था। दिल्ली में वो अपने पिता जी का बिज़नेस में हाथ बटाता था ।

 

बाबा जब रिश्ते की बात करने गए तो वहां से बाबा को दहेज की एक लम्बी लिस्ट पकड़ा दी गयी।

बाबा जब शाम को हारे थके लौटे तो मैंने बाबा से कहा :

“शादी के पहले ये मांगे है तो शादी के बाद क्या होगा “।

“अरे बिटिया, तुझे नहीं पता समाज के तौर तरीके, यहाँ ऐसा ही होता है, बेटी के साथ दहेज़ देने की ये पुरानी प्रथा है। कुछ पैसो के लिए अच्छा रिश्ता हाथ से न चला जाये।”

माँ ने भी हामी भर दी ।

दहेज़ जुटाने की लिए बाबा को गांव की कुछ जमीन भी बेचनी पड़ी जिससे शादी का खर्चा और दहेज़ का सामान जैसे फ्रिज, वाशिंग मशीन, सोफा, अलमारी खरीदी।और साथ ही में दहेज़ के 5  लाख  रुपये में से 3 लाख नगद जुटा पाएं।

विक्रम के घरवालों ने बाकि के २ लाख देने की लिए बाबा को कुछ महीनो की मोहलत दी थी।

शादी की तारिख निकाली गयी। जैसे जैसे शादी का दिन पास आता गया, बाबा के चेहरे पर शिकन और थकावट बढ़ती जाती।

मुझे आज भी याद है वो विदाई की सुबह, अपने बाबा को गले से लगा कर खूब रोई थी की “बाबा अपने पराया कर दिया।”

“बेटा अपने दिल का टुकड़ा कभी पराया नहीं होता। बस तू खुश रहना तो हम समझेंगे हमारा जीवन सफल हो गया।”

 

शादी ब्याह सब कुछ सही से हो गया।

ससुराल में शुरुआती कुछ दिन भी अच्छे थे। पर जैसे जैसे कुछ महीने बीतते गए मुझे अपने ससुराल का एक नया ही रूप देखने को मिला ।

मेरी हर बात में कमी निकालना , मुझे बात बात पर ताने मारना, अब तो विक्रम भी बदला बदला लगता था ।

फिर एक दिन मैंने अपनी सासु माँ से हिम्मत कर पुछा

” मम्मी जी, मुझसे कोई गलती हुई है क्या ?? ”

“अरे गलती तो हमसे हुई है जो तेरे घर रिश्ता जोड़ आए, तेरे बाप ने दहेज़ के पुरे पैसे भी नहीं दिए, और अपनी कुलच्छिनी बेटी हमारे गले बांध दी ”

ये सब सुन कर तो जैसे मेरे पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गयी ।

“कैसे अपने माँ बाबा को ये सब बताऊँ ”

“बड़ी मुश्किल से तो हमारे घर का खर्च ही चल पता है उस पर बाबा दो लाख रुपये कहां से लाएंगे ”

बस जैसे तैसे दिन बीतते गए ससुराल वालो के ताने बढ़ते गए और विक्रम का बर्ताव बत से बत्तर होता गया।

हद तो तब हो गए जब एक दिन उसने शराब के नशे में मुझे बेल्ट से पीटा।

घाव के दर्द से ज़्यादा इस बात का दुःख था की न चाहते हुई भी मुझे ये सब सहना पड़ रहा था।

उस दिन किचन में खाना बना रही थी तभी बाहर से आवाज आयी “पूर्णिमा देख कौन आया है तुझसे मिलने ”

बाहर आकर देखा तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा और खुश होऊ भी क्यों न बाबा जो आए थे मुझसे मिलने।

“पूर्णिमा, मेरी बच्ची कैसी है तू ? ??”

“हाँ, बाबा मै ठीक हूँ, माँ कैसी है, और दोनों बहने, वो दोनों क्यों नहीं आयी साथ? आप कैसे हो बाबा ”

“अरे दोनों का पेपर चल रहा था इसलिए नहीं आयी”

बाबा ने मेरी सास के हाथो में एक लिफाफा दिया और बोले “समधन जी ,पैसे जुटाने में थोड़ी देर हो गयी पर आप गिन लीजिये पूरे है।”

सासु माँ को जैसे वो दो लाख मिलने की ज़रा भी ख़ुशी न थी ।

“समधी जी विक्रम अपना एक अलग शॉप खोलना चाहता है जिसमे कुछ पैसे कम पड़ रहे है आप 5  लाख का इंतेज़ाम और कर पाए तो अच्छा होगा ”

“5 लाख ? समधन जी मेरे पास इतने पैसे कहा से आएंगे, अभी मेरी दो बिटियां और भी तो है ।”

सासु माँ बोली “आप देख लीजिये,वैसे भी जो विक्रम का है वो पूर्णिमा का भी तो है ”

“विक्रम खुश रहेगा तभी तो पूर्णिमा भी खुश रहेगी , आगे आप खुद समझदार है ”

सामने खड़ी मै ये सब सुन रही थी पर ना जाने क्यों कुछ कह नहीं पा रही थी।

तभी बाबा मेरे हाथ की चोट देख कर बोले,

“अरे बिटिया ये चोट कैसे लगी ?”

“आ …कुछ नहीं बाबा, सीढ़ी से पैर फिसल गया था ”

बाबा सबसे विदा लेकर लौट गए और मैं बाबा से फिर मिलने की आस लिए दिन गिनती रहीं।

उस दिन दिल में कई सवाल रह रह कर उठ रहे थे की हम बेटियां अपने पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आखिर आवाज क्यों नहीं उठा पाती??

शायद समाज का डर हमारे ज़ेहन में इतनी बुरी तरह घर कर चुका होता है की हमारी सोचने समझने की शक्ति अब ख़त्म हो चुकी होती है।

अगर ससुराल छोड़ कर जाउंगी तो मायके में क्या मुँह ले कर रहूंगी? लोग क्या कहेंगे?अभी दो बहने और भी है मेरी, उनसे शादी कौन करेगा ?   शायद यही सब सोच कर मैं हर दिन खून का घुट पिए जा रहीं थीं।

तभी भगवन ने मेरे नसीब में भी कुछ खुशियां लिखी और मैं प्रेग्नेंट हो गयी।

मेरे माँ बनने की ख़ुशी न मेरे ससुराल वालो को थीं और न ही विक्रम को। वो लोग तो बस आस लगाए बैठे थे की कब उन्हें पांच लाख रुपए मिलेंगे।

उस घर में प्रेगनेंसी के नौ महीने काटना बड़ा मुश्किल था। पर माँ बाबा के घर जा कर उनकी मुश्किले और नहीं बढ़ाना चाहती थी।

किसी तरह नौ महीने बीते और आज डॉक्टर ने जब बताया की मुझे बेटी हुई है तो मानो मुझे ऐसा लगा जैसे भगवान ने मुझे जीने का एक सहारा दे दिया हो। आज मैं बहुत खुश थी। और इसलिए मैंने अपनी बेटी का नाम “ख़ुशी” रखा ।

 

बेटी होने पर जैसे मेरे ससुराल में मातम पसरा था।

पर मैंने अब ठान लिया था की अपनी बेटी को वो सारी खुशियां दूंगी जिसपर हर एक बच्चे का हक़ होता है।

ख़ुशी की प्यारी से मुस्कान और उसकी वो भोली से आंखें मेरे जीवन में जैसा नया रंग भर देती थी।

उस दिन विक्रम कुछ ज़्यादा ही शराब पी कर घर आया था, और ससुर जी को उनके कारोबार में नुकसान हुआ था।

बस फिर क्या था सबका गुस्सा मुझपर ही उतरने लगा।

जब तानो से जी नहीं भरा तो विक्रम ने रॉड से मुझे पीट पीट कर अधमरा कर दिया।

मैं कमरे में बेसुध पड़ी थी, तभी मेरी सास बोली,

“अरे खत्म करो इसे, इसके रहने का कोई फायदा नहीं, इसका बाप भी अब कोई पैसे नहीं देने वाला, तेरी अब दूसरी शादी करवाउंगी बड़े घर में”

जैसे मैंने खड़ा होने की कोशिश की विक्रम मुझे बालों से पकड़ कर घसीटता हुआ किचन में ले गया।

मुझे अंदाजा भी नहीं था वो लोग मेरे साथ क्या करने वाले थे।

मुझे तो बस अपनी भूखी बच्ची की रोने की आवाज सुनाई दे रही थी ।

” मेरी बच्ची भूखी है, मुझे जाने दो, मुझे माफ़ कर दो ” मैं उन लोगो की आगे हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाती रहीं।

इतने मे मेरे शरीर में तेज़ जलन होने लगी मेरा चमड़ा पिघल कर गिरने लगा।

विक्रम ने मुझ पर तेजाब डाला था।

“अरे जला दो इसे ” “तेजाब से नहीं मारेगी ये ”

उनकी हैवानियत की इन्तहा तो तब हो गयी जब उन्होंने मुझ पर पेट्रोल डाल कर मुझे आग लगा दिया।

मैं धु धु कर जल रही थी और मदद के लिए चिल्ला रही थी।

“बाबा मुझे बचा लो ” !!!

उसके बाद क्या हुआ मुझे मालूम नहीं।

जब आंख खुली तो मैं हॉस्पिटल में थीं। माँ बाबा मेरे सामने खड़े रो रहे थे और मेरे पुरे शरीर पर पट्टियों बंधी थी।

मेरा शरीर 90 प्रतिशत जल चुका था।

मुझे मालूम था की अब मेरी जिंदगी की चंद सासें ही बची है।

मैंने बाबा से इशारे में पुछा “मेरी बच्ची” ???

बाबा बोले हाँ वो हमारे पास है, और ठीक है।

मैंने मन ही मन बाबा से माफ़ी मांगी की मैं आपकी अच्छी बिटिया ना बन पायी।

आज मैं समाज के दोगले रीती रिवाजो की बलि चढ़ चुकी थी।

 

ये वही समाज है जहाँ आज भी बेटी पैदा होने पर अफ़सोस जताया जाता है। ये समाज सतयुग में भी ऐसा ही था और आज कलयुग में भी ऐसा ही है। उस समय सीता जी की अग्नि परीक्षा ली गयी थी और आज पूर्णिमा को अग्नि के सुपूत कर दिया गया था।

आज मन में बस एक ही बात उठती है की हे भगवन “अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो “

(गाजियाबाद की 36 वर्षीय संगीता वर्मा जो पेशे से एक सरकारी स्कूल में टीचर थी उनको दहेज के लालच में पहले एसिड से और फिर पेट्रोल डाल कर जला दिया गया। 90% जल चुकी संगीता ने कुछ दिनों बाद दिल्ली के सफदजंग अस्पताल ने दम तोड़ा।)

आज हम इकीसवीं सदी में तो जरूर पहुंच गए है पर क्या आप जानते है की आज भी देश के हर कोने में  रोज लगभग 21 बेटियां देहज के लालच में जला कर मार दी जाती है। और जिनमे से केवल 34 .7 प्रतिशत वारदात में ही सजा सुनाई गई है और बाकि केस आज भी फाइलों में बंद अपनी तारीखों का इंतजार कर रहे है।

 

“द नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो” के आंकड़ों के मुताबिक साल 2015  में केवल दहेज़ प्रताड़ना से ही कुल 7634 मौतें हुई जिनमें से अधिकतर या तो जिन्दा जलाने से या उनसे जबरन खुदखुशी करवाने से हुई है।

अगर इस बात की गहराई तक जाए तो कहीं ना कहीं गलती हम मां बाप की भी होती है।जो अपनी बेटियों को ये भरोसा ही नहीं दिला पाते कि बेटी तेरे साथ जो भी हो हम तेरा साथ हमेशा खड़े रहेंगे। आज हमे अपनी बेटियों को शारीरिक और मानसिक दोनों ही रूप से सक्षम बनाने की जरूरत है।

हमे यह सोचने की भी जरूरत है की हम कब तक इस दोगले समाज के रीती रिवाजो को निभाएंगे, और क्या हम हमारी आने वाली पीढ़ी को इसी समाज में पलता बढ़ता देखना चाहते है।

समाज हम और आप से ही तो बनता है इसलिए जरुरत है अपनी सोच बदलने की। तभी हम समाज में बदलाव ला पाएंगे।

सोच बदलो देश बदलो!!!

अगर आपको मेरा यह ब्लॉग पसंद आया हो तो मुझे कॉमेंट बॉक्स में लिख कर जरूर बताए ।

 

Disclaimer: This blog was originally posted on Momspresso.com. This is a personal blog. Any views or opinions represented in this blog are personal and belong solely to the blog owner.

About The Author

Rama Dubey

I am a Communication Professional with more than 13 years of rich experience in Public relations, Media management, Marketing and Brand promotion.  Currently working as a Head- communication for an IT firm.

Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Blogs